Raipur News : छत्तीसगढ़ के गौरेला-पेंड्रा-मरवाही जिले की मरवाही विधानसभा (Marwahi VidhanSabha) सीट आदिवासी समुदाय के लिए आरक्षित है। ये सीट जोगी परिवार की परंपरागत मानी जाती थी। मध्य प्रदेश के समय से ही ये सीट काफी चर्चित रही है, अजीत जोगी ने यहीं से जीतकर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बनने का गौरव हासिल किया था। 2003 से 2018 तक इस सीट पर जोगी परिवार का ही दबदबा रहा।
हालांकि अजीत जोगी के निधन के बाद 2020 में हुए उपचुनाव में जाति प्रमाण पत्र मामले में अमित जोगी व उनकी पत्नी ऋचा जोगी का नामांकन निरस्त हो गया। इसके बाद वे चुनाव नहीं लड़ पाए। इस उपचुनाव में कांग्रेस के डॉ. केके ध्रुव ने भाजपा के डॉ. गंभीर सिंह को पराजित किया। अब यहां कांग्रेस का कब्जा है।
मरवाही विधानसभा (Marwahi VidhanSabha) सीट क्या अब जोगी परिवार विहीन हो सकता है? जोगी परिवार का जाति मामले में अब तक कोर्ट का फैसला नहीं आया है। इस वजह से आगामी विधानसभा चुनाव 2023 में मरवाही सीट से शायद जोगी परिवार चुनाव नहीं लड़ सकेगी। ऐसे में अब यहां कांग्रेस व बीजेपी के बीच ही सीधा मुकाबला होने की संभावना है।
मरवाही विधानसभा का चुनावी गणित : मरवाही विधानसभा (Marwahi VidhanSabha) सीट ही एक ऐसी सीट है, जहां साल 2000 में राज्य बनने के बाद साल 2020 तक यानी 20 सालों में 6 बार चुनाव हो चुके हैं। यहां 5 बार जोगी परिवार के सदस्य ने जीत हासिल की है। छठवीं बार हुए चुनाव में जोगी परिवार से कोई भी उम्मीदवार चुनाव नहीं लड़ा सका था।
राज्य बनने के बाद अजीत जोगी छत्तीसगढ़ के प्रथम मुख्यमंत्री बनें और वे अपने गृह विधानसभा मरवाही से 2001 में चुनाव लड़े। राज्य बनने के पहले साल ही मरवाही में उपचुनाव हुए थे, जिसमें तत्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने भाजपा प्रत्याशी अमर सिंह को 51 हजार से अधिक वोटों से पराजित किया था।
2003 में मरवाही जीते, लेकिन सत्ता गंवाई : साल 2003 में चुनाव हुआ। इस चुनाव में भी अजीत जोगी ने भाजपा के दमदार नेता नंदकुमार साय (अब कांग्रेस में हैं) को हरा दिया था, लेकिन कांग्रेस को बहुमत नहीं मिल सका और राज्य में भाजपा सत्ता में पहली बार आई। इसके बाद अजित जोगी ने 2008 में भाजपा के ध्यान सिंह को हराया।
2013 में मरवाही से अमित जोगी ने भाजपा की महिला प्रत्याशी समीरा पैकरा को हरा कर जीत हासिल की। वहीं 2018 विस चुनाव के पहले कांग्रेस ने अजीत जोगी को पार्टी से बाहर कर दिया तो उन्होंने खुद की पार्टी जेसीसी जे बनाई। अपनी पार्टी के हल छाप निशान लेकर चुनावी मैदान में उतरे। जहां उन्होंने भाजपा की अर्चना पोर्ते को हराकर इस सीट से तीसरी बार विस पहुंचे। 2020 में उनका निधन हो गया।
जोगी परिवार का ऐसे बना गढ़ : 2001 के बाद से ये विधानसभा (Marwahi VidhanSabha) जोगी परिवार की होकर रह गई। 2003, 2008 में अजीत जोगी लगातार यहां से विधायक रहे। 2013 में अजित जोगी ने इस सीट को छोड़ दिया था, जिसके बाद 2013 में यहां से अमित जोगी ने चुनाव लड़ा। 2018 में अमित जोगी ने अपने पिता स्व अजीत जोगी के लिए सीट छोड़ दी।
राजनीतिक इतिहास बताता है कि यहां से भले ही दो बार बीजेपी के विधायक बने हैं, लेकिन इसकी तासीर कांग्रेसी ही है। हालांकि जोगी परिवार मानता हैं कि ये कांग्रेस का नहीं बल्कि जोगी का गढ़ है। जोगी के गढ़ के रूप ख्यात मरवाही मूल रूप से कांग्रेस पार्टी को अब तक चुनता आ रहा है। मरवाही में मुकाबला इसलिए भी इसबार दिलचस्प होगा क्योंकि मरवाही में कांग्रेस यह कहके जनता से वोट मांग सकती है कि यह कांग्रेस पार्टी के लिए परंपरागत सीट है।
अलग जिले की सौगात कांग्रेस ने दी : मरवाही पहले बिलासपुर जिले का हिस्सा था। सीएम भूपेश बघेल ने 15 अगस्त 2019 में इस क्षेत्र की लंबित व पुरानी मांग जिला बनाने की बहुप्रतीक्षित मांग पूरी की। 10 फ रवरी 2020 को गौरेला-पेंड्रा-मरवाही जिला अस्तित्व में आ गया। बिलासपुर से अलग जिला बनने के बाद लगातार इस क्षेत्र में विकास के द्वार खोल दिये गए।
यही नहीं मरवाही को नगर पंचायत के साथ अनुविभागीय अधिकारी राजस्व के साथ अनुविभागीय अधिकारी पुलिस का कार्यालय खोलने की घोषणा की साथ ही गौरेला पेण्ड्रा नगर पंचायत को नगर पालिका बनाने की घोषणा भी मुख्यमंत्री ने की है। पर इसमें से कई घोषणा अब भी चुनावी घोषणा ही निकली और पूरी नहीं हो सकी है।
मरवाही विधानसभा की खासियत : मरवाही घने जंगलों से घिरा हुआ है। करीब डेढ़ लाख हेक्टयेर में जंगल फैला हुआ है। भालुओं के लिए भी ये इलाका काफी मशहूर है। इस इलाके में दुर्लभ सफेद भालू भी मिलते हैं, लेकिन अब यही भालू यहां की सबसे बड़ी समस्या बन चुके हैं और सफेद भालू लगभग विलुप्ति के कगार पर है। जंगल में रहने वाले ग्रामीणों पर लगातार भालू के हमले की खबर आती रहती हैं।
स्व अजीत जोगी ने मुख्यमंत्री रहते हुए इस समस्या से निपटने के लिए ऑपरेशन जामवंत प्रोजेक्ट चलाने की घोषणा की थी, पर जोगी की सरकार जाते ही ये योजना फ ाइलों में गुम हो गई। यही वजह है कि चुनाव में यहां दूसरे मुद्दों के साथ भालू भी एक बड़ा मुद्दा बन ही जाता है। हालांकि पिछले लगभग 4 सालों से इन इलाकों में भालु के साथ अब हाथियों की भी आमद होने लगी है जिसके चलते यहां के दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रो में रहने वाले ग्रामीण जान माल को लेकर काफी चिंतित है।
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